(दि हिंदू, मद्रास, फ़रवरी १८९७)
प्र०-यह सिद्धांत कि जगत् मिथ्या है, निम्नलिखित अर्थों में समझा जाता जान पड़ता है। (अ) इस अर्थ में कि नाशवान रूपों और नामों की आयु अनंत काल की तुलना में अनंत रूप से छोटी है; (आ) इस अर्थ में कि किन्हीं दो प्रलयों (विश्व के संकोचन) के बीच की अवधि अनंत काल की तुलना में अनंत रूप से छोटी है; (इ) इस अर्थ में कि विश्व अंतिम रूप से मिथ्या है, यद्यपि वह, एक प्रकार की चेतना के अनुसार, इस समय उसी तरह वास्तविक दिखायी देता है, जैसे कि सीपी में चाँदी की धारणा अध्यस्त होती है, अथवा रस्सी में सर्प का भ्रम होता है, जो कुछ समय के लिए सत्य होता है और मन की एक विशेष स्थिति पर आश्रित रहता है; (ई) इस अर्थ में कि विश्व उसी तरह कल्पना मात्र है, जैसे कि बंध्या-पुत्र और शश-श्रृंग।
अद्वैत दर्शन में यह सिद्धांत इन अर्थों में से किसमें समझा जाता है ?
उ०-अद्वैतवादियों में बहुत से मत हैं और प्रत्येक ने इस सिद्धांत को अलग-अलग अर्थ में समझा है। शंकर ने इस सिद्धांत का (इ) अर्थ में प्रचार किया और उनका उपदेश यह है कि विश्व, जैसा कि वह दिखायी देता है, प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसकी वर्तमान चेतना में सब कार्यों के लिए वास्तविक है, पर जब चेतना एक उच्चतर रूप ग्रहण करती है, तो यह अंतर्धान हो जाता है। आप एक वृक्ष के तने को अपने सामने खड़ा देखते हैं और उसे भ्रमवश भूत समझते हैं। कुछ समय के लिए भूत का विचार सत्य होता है, क्योंकि वह आपके मन पर कार्य करता है और उसके ऊपर ऐसा प्रभाव डालता है, मानो वह सचमुच भूत हो। पर ज्यों ही आपको उसके तने होने का पता चल जाता है, भूत का विचार समाप्त हो जाता है। तने का विचार और भूत का विचार साथ साथ नहीं रह सकते। जब एक होता है, तो दूसरा नहीं होता।
प्र०-क्या शंकर की कुछ रचनाओं में (ई) अर्थ नहीं लिया गया है ?
उ०-नहीं। कुछ ऐसे लोगों ने, जो शंकर के विचारों को अति की सीमा तक ले गए हैं, भ्रमवश अपनी रचनाओं में (ई) अर्थ का उपयोग किया है। अर्थ (अ) और (आ) कुछ अन्य मतों के अद्वैत दार्शनिकों की रचनाओं में पाये जाते है, पर शंकर ने उन्हें कभी स्वीकार नहीं किया।
प्र०--इस आपातप्रतीयमान सत्य का कारण क्या है ?
उ०--आपको तने में भूत का भ्रम होने का कारण क्या है ? वास्तव में, विश्व तो वही है, यह आपका मन है, जो उसके लिए विभिन्न परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है।
प्र०-इस कथन का वास्तविक अर्थ क्या है कि वेद अनादि और नित्य हैं ? क्या इसका संबंध वैदिक वाणी से अर्थात् वेद में दिए हुए कथनों से है ? यदि यह ऐसे कथनों में निहित सत्य की ओर संकेत करता है, तो क्या न्याय, ज्यामिति, रसायनशास्त्र आदि जैसे विज्ञान उतने ही अनादि और नित्य नहीं हैं ? क्योंकि उनमें नित्य सत्य निवास करता है।
उ०-एक समय था, जब वेद स्वयं इस अर्थ में नित्य समझे जाते थे कि उनमें निहित दैवी सत्य अपरिवर्तनशील तथा स्थायी है, और केवल मनुष्य के प्रति उद्घाटित किया गया है। उसके बाद के समय में ऐसा मालूम होता है कि अर्थों के ज्ञान सहित वैदिक मंत्रों का पाठ महत्वपूर्ण था, और यह विश्वास किया जाता था कि मंत्र स्वयं ईश्वर द्वारा रचे गए होंगे। उसके और भी बाद के काल में मंत्रों के अर्थों से यह पता चला कि वे दैवी रचना नहीं हो सकते; क्योंकि वे मनुष्य को, पशुओं को कष्ट देने के समान अनेक अपवित्र काम करने को कहते हैं। इसके अतिरिक्त, हम वेदों में बहुत सी हास्यास्पद कथाएँ भी पाते हैं। इस कथन का कि 'वेद अनादि और नित्य हैं', शुद्ध अर्थ यह है कि उनके द्वारा मनुष्य के प्रति जो नियम अथवा सत्य उद्घाटित होता है, वह स्थायी और अपरिवर्तनशील है। न्याय, ज्यामिति, रसायनशास्त्र आदि भी ऐसे नियम या सत्य को उद्घाटित करते हैं, जो स्थायी और अपरिवर्तनशील हैं और इस अर्थ में वे अनादि और नित्य हैं। पर ऐसा कोई सत्य या नियम नहीं है, जो वेदों में अनुपस्थित हो, और मैं आपमें से प्रत्येक से कहूँगा कि आप मुझे ऐसा कोई भी सत्य बतायें, जिसका विवेचन वेदों में न किया गया हो।
प्र०-अद्वैत दर्शन के अनुसार मुक्ति का तात्पर्य क्या है, अथवा दूसरे शब्दों में क्या वह एक चेतन अवस्था है ? क्या अद्वैतवाद की मुक्ति और बौद्ध मत के निर्वाण मं कोई अंतर है ?
उ०-मुक्ति में एक चेतना है, जिसे हम अतिचेतना कहते हैं। वह आपकी इस समय की चेतना से भिन्न है। यह कहना तर्कसंगत नहीं होगा कि मुक्ति में चेतना नहीं है। चेतना तीन प्रकार की होती है--मंद, मध्यम और तीव्र-जैसा कि प्रकाश में होता है। जब कंपन तीव्र होता है, तो चमक इतनी शक्तिशाली होती है कि उससे दृष्टि चौंधिया जाती है, और परिणामतः वह उतनी ही व्यर्थ होती है, जितना कि मंदतम प्रकाश। बौद्ध लोग चाहे कुछ भी कहें, उनके निर्वाण में भी चेतना की मात्रा इतनी ही होनी चाहिए। हमारी मुक्ति की परिभाषा अपनी प्रकृति में सकारात्मक है, जब कि बौद्धों के निर्वाण की नकारात्मक है।
प्र०-निरुपाधिक ब्रह्मा संसार की सृष्टि की अभिव्यक्ति के लिए उपाधि क्यों स्वीकार करता है ?
उ०-यह प्रश्न स्वयं में अत्यधिक तर्करहित है। ब्रह्मा अवाङ्मनसगोचरम् है अर्थात् वह शब्द और मन द्वारा पकड़ा नहीं जा सकता। देश, काल और कार्यकारण के क्षेत्र से जो परे है, वह मानव-मस्तिष्क की कल्पना से बाहर है; और तक तथा जिज्ञासा का क्षेत्र केवल देश, काल और कार्य-कारण की सीमा के भीतर ही है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठाना कि मानव-कल्पना की संभावनाओं से परे क्या है, एक निरर्थक प्रयत्न है।
प्र०-कहीं कहीं पुराणों में ऐसे छिपे हुए विचारों की स्थापना का प्रयत्न किया जाता है, जो कहा जाता है कि उनमें रूपकों के रूप में उपस्थित हैं। कभी यह कहा जाता है कि यह आवश्यक नहीं कि पुराणों में कोई ऐतिहासिक सत्य हो; वे वास्तव में काल्पनिक पात्रों की सहायता से चित्रित केवल उच्चतम विचारों के निरूपण हैं। विष्णुपुराण, रामायण अथवा महाभारत इसके उदाहरण हैं: क्या उनमें ऐतिहासिक सत्य है, अथवा वे तात्त्विक सत्यों के रूपकात्मक निरूपण हैं, अथवा वे मानव के आचरण के लिए उच्चतम आदर्शों के निरूपण हैं अथवा वे होमर की रचनाओं की भाँति केवल महाकाव्य मात्र हैं ?
उ०-प्रत्येक पुराण के केंद्र में कोई न कोई ऐतिहासिक सत्य है। पुराणों का उद्देश्य मनुष्य मात्र को विभिन्न रूपों में उदात्त सत्य की शिक्षा देना है; और यदि उनमें कोई ऐतिहासिक सत्य नहीं है, तो भी वे उस उच्चतम सत्य के विषय में, जिसका वे प्रचार करते हैं, हमारे लिए प्रामाणिक रचनाएँ हैं। उदाहरण के लिए रामायण को लीजिए। चरित्र-निर्माण के संबंध में उसको एक प्रामाणिक रचना की दृष्टि से देखने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि राम के समान कोई व्यक्ति कभी रहा हो। रामायण अथवा महाभारत के द्वारा उपस्थित की गयी व्यवस्था की उदात्तता राम अथवा कृष्ण के समान किसी व्यक्ति के सत्य होने पर निर्भर नहीं है, और हम यह भी कह सकते हैं कि ऐसा व्यक्ति कभी हुआ ही नहीं; इसके साथ ही इन रचनाओं को मानव-जाति के सम्मुख उनके द्वारा रखे जानेवाले महान विचारों के लिए उच्च प्रामाणिकता प्रदान कर सकते हैं। हमारा दर्शन अपने सत्य के लिए किसी व्यक्ति पर निर्भर नहीं है। कृष्ण ने संसार को कोई बात नयी अथवा मौलिक नहीं बतायी और न रामायण में कोई ऐसी बात कही गयी है, जो धर्मशास्त्रों में नहीं है। यह ध्यान देने की बात है कि ईसाई मत ईसा के अभाव में इस्लाम महम्मद के बिना, बौद्ध मत बुद्ध के बिना खड़ा नहीं रह सकता, पर हिंदू धर्म किसी व्यक्ति पर आश्रित नहीं है; और पुराणों के दार्शनिक सत्य के मूल्यांकन के उद्देश्य से हमें इस प्रश्न पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है कि उनमें जिन व्यक्तियों का वर्णन किया गया है, वे वास्तव में हाड़-मांस के मनुष्य थे अथवा कल्पित पात्र। पुराणों का उद्देश्य मनुष्यों को शिक्षा देना है और जिन ऋषियों ने उनकी रचना की है, उन्होंने कुछ ऐतिहासिक व्यक्तियों को लिया, उनके ऊपर बिल्कुल अपनी इच्छा के अनुसार सर्वोत्तम अथवा सबसे हीन गुणों का आरोपण किया और मनुष्यजाति के आचरण के लिए नैतिक नियम निर्धारित किए। क्या यह आवश्यक के कि जैसा रामायण में वर्णित है, दस शिरोंवाले (दशमुख) एक राक्षस, को यथार्थ में होना ही चाहिए था ! यह सत्य विशेष का निरूपण है, जो असल में इस प्रश्न से अलग अध्ययन की वस्तु है कि दशमुख वास्तविक था अथवा काल्पनिक पात्र। अब आप कृष्ण को कुछ अधिक आकर्षक रीति से चित्रित कर सकते हैं, और यह चित्रण आपके आदर्श की उदात्तता पर निर्भर करता है, पर पुराणों के भीतर महान दर्शन निहित है।
प्र०-क्या यह संभव है कि यदि कोई मनुष्य सिद्ध हो तो, वह अपने पूर्व जन्मों की घटनाओं को याद रखे ? पिछले जन्म में उसका जो शारीरिक मस्तिष्क था और जिसमें उसके अनुभवों के प्रभाव संचित्त थे, अब उपस्थित नहीं है। इस जन्म में उसे एक नया शारीरिक मस्तिष्क मिला है, और ऐसी स्थिति में वर्तमान मस्तिष्क के लिए यह कैसे संभव हो सकता है कि वह एक ऐसे दूसरे उपकरण द्वारा प्राप्त किए गए प्रभावों तक पहुँच जाए, जिसका अब अस्तित्व ही नहीं है ?
स्वमी जी-सिद्ध से आपका क्या तात्पर्य है ?
संवाददाता-वह जिसने अपनी प्रकृति की गुप्त शक्तियों को विकसित कर लिया है।
स्वामी जी-मेरी समझ में नहीं आता कि गुप्त शक्तियाँ किस प्रकार विकसित की जा सकती हैं। मैं समझ रहा हूँ कि आप क्या कहना चाहते हैं, पर मैं सदा यह चाहता हूँ कि जिन शब्दों का उपयोग किया जाए, वे सुनिश्चित और ठीक हों। आप कह सकते हैं कि गुप्त शक्तियों का उद्घाटन किया जाता है। यह संभव है कि वे लोग, जिन्होंने अपनी प्रकृति की गुप्त शक्तियों को उद्घाटित कर लिया है, अपने पूर्व जन्मों से संबंधित घटनाओं को स्मरण रखें, क्योंकि उनके वर्तमान मस्तिष्क का बीज मृत्यु के उपरांत सूक्ष्म मनुष्य में होता है।
प्र० क्या हिंदू धर्म की भावना उसमें बाहरी लोगों को सम्मिलित होने की अनुमति देती है ? और क्या ब्राह्मण चांडाल के द्वारा की हुई दर्शन की व्याख्या को सुन सकता है ?
उ०--निज धर्म में दूसरों का सम्मिलित होना हिंदुओं द्वारा सहन किया जाता है। कोई भी व्यक्ति, चाहे वह शूद्र हो या चांडाल, ब्राह्मण के प्रति भी दर्शन की व्याख्या कर सकता है। सत्य निम्नतम व्यक्ति से भी सीखा जा सकता है, चाहे वह किसी भी जाति अथवा संप्रदाय का हो।
यहाँ स्वामी जी ने अपने कथन के समर्थन में उच्च प्रामाणिकता के संस्कृत श्लोक उद्धृत किए।
वार्तालाप समाप्त हो गया, क्योंकि कार्यक्रम में उनके मंदिर जाने का निश्चित समय हो गया था। इसलिए उन्होंने उपस्थित सज्जनों से विदा ली और मंदिर चले गए।
विदेशों की बात और देश की समस्याएँ
('दि हिंदू , मद्रास, फ़रवरी, १८९७)
हमारे एक प्रतिनिधि स्वामी विवेकानंद से गाड़ी में चिंगलपुट स्टेशन पर मिले और उनके साथ मद्रास तक आये। इस भेंट का विवरण यहाँ दिया जा रहा है:
"स्वामी जी, आप अमेरिका किसलिए गए थे ?"
"यह प्रश्न कुछ ऐसा गंभीर है कि इसका उत्तर संक्षेप में देना कठिन है। मैं अभी इसका उत्तर अंशतः देता हूँ। क्योंकि मैंने संपूर्ण भारत की यात्रा की थी और मैं दूसरे देशों की भी यात्रा करना चाहता था। मैं अमेरिका सुदूर पूर्व होकर गया।"
"आपने जापान में क्या देखा, और क्या ऐसी संभावना है कि भारत जापान के प्रगतिशील चरणों का अनुसरण करे ?"
"बिल्कुल नहीं, जब तक कि भारत के तीस करोड़ एक संपूर्ण राष्ट्र की भाँति परस्पर मिल नहीं जाते, यह संभव नहीं। संसार ने कभी जापातियों के समान देशभक्त और कलाप्रिय जाति नहीं देखी; और उनकी एक विशेषता यह है कि जब कि यूरोप और दूसरे देशों में कला, साधारणतया गंदगी के साथ पायी जाती है, जापान में कला का अर्थ होता है कला+परम स्वच्छता। मेरी इच्छा है कि हमारे नवयुवकों में से प्रत्येक अपने जीवन में कम से कम एक बार जापान अवश्य जाए। वहाँ जाना बहुत आसान है। जापानी समझते हैं कि हिंदुओं की प्रत्येक वस्तु महान है और विश्वास करते हैं कि भारत पवित्र भूमि है। जापानी बद्धमत उससे बिल्कुल भिन्न है, जो हमें लंका में दिखायी देता है। वह बिल्कुल वेदांत है। वह सकारात्मक और ईश्वरवादी बुद्धमत है, लंका का नकारात्मक निरीश्वरवादी बुद्धमत नहीं।
"जापान की हठात् महानता की कुंजी क्या है ?"
"जापानियों का अपने में विश्वास और अपने देश के लिए उनका अनुराग। जब आपके पास ऐसे मनुष्य होंगे, जो अपना सब कुछ देश के लिए होम कर देने को तैयार हों, भीतर तक एकदम सच्चे, जब ऐसे मनुष्य उठेंगे, तो भारत प्रत्येक अर्थ में महान हो जाएगा। ये मनुष्य हैं, जो देश को महान बनाते हैं! देश का अर्थ क्या होता है ? यदि आप जापानियों की सामाजिक नैतिकता और राजनीतिक नैतिकता ले लेते हैं, तो आप उतने ही महान हो जायँगे, जितने जापानी हैं। जापानी अपने देश के लिए सब कुछ बलिदान करने को तैयार है और वे एक महान राष्ट्र बन गए है। पर आप ऐसे नहीं हैं और आप नहीं बन सकते; आप अपना सब कुछ केवल अपने परिवारों और अपनी संपत्ति के लिए ही बलिदान कर सकते हैं।"
"क्या आपकी यह इच्छा है कि भारत जापान के समान हो जाए?"
"निश्चय ही नहीं। भारत को वही रहना चाहिए, जो वह है। भारत कभी जापान के समान कैसे हो सकता है, और वास्तव में कोई भी देश उसके समान कैसे हो सकता है ? प्रत्येक राष्ट्र का, जैसा कि संगीत में होता है, एक मुख्य स्वर होता है, एक केंद्रीय विषय-वस्तु होती है, जिस पर अन्य सब बातें घूमती हैं। प्रत्येक राष्ट्र की एक विशिष्टता होती है, अन्य सब बातें उसके बाद आती है। भारत की विशिष्टता धर्म है। समाज-सुधार और अन्य सब बातें गौण हैं। इसलिए भारत जापान के जैसा नहीं हो सकता। यह कहा जाता है कि जब हृदय को ठेस लगती है, तो भावनाएँ उमड़ती है। भारत के हृदय को ठेस पहुँचनी चाहिए और आध्यात्मिकता का प्रवाह फूट निकलेगा। भारत भारत है। हम जापानियों जैसे नहीं हैं, हम हिंदू हैं। भारत का वातावरण ही शांति देनेवाला है। मैं यहाँ निरंतर काम कर रहा हूँ और इस काम में मुझे विश्राम मिल रहा है। हमें भारत में केवल आध्यात्मिक कार्य से ही विश्राम मिल सकता है। यदि आप यहाँ पार्थिव कार्य करते हैं, तो आप मरते हैं--मधुमेह से।"
"यह तो जापान की बात रही। स्वामी जी, आपका अमेरिका का प्रथम अनुभव कैसा रहा?"
"वह आदि से अंत तक बहुत अच्छा रहा। मिशनरियों और 'चर्च-नारियों' (Church-women) को छोड़कर, अमेरिका के लोग अत्यंत अतिथि-सत्कारी, दयालु, उदार और अच्छे स्वभाववाले हैं।"
"ये 'चर्च-नारियाँ', जिनकी आए बात कह रहे हैं, कौन हैं, स्वामी जी ?"
"जब कोई नारी अपने लिए पति खोजने का अधिक से अधिक प्रयत्न करती है, तो वह सभी फ़ैशनेबुल समुद्रतटीय स्नान-स्थानों पर जाती है, और किसी पुरुष को पकड़ पाने के लिए सब प्रकार के छल-छद्म काम में लाती है। जब वह अपने प्रयत्नों में असफल रहती है तो वह, जैसा कि अमेरिका में कहते हैं, 'ओल्ड मेंड' हो जाती है और चर्च में सम्मिलित हो जाती है। उनमें से कुछ चर्च के काम में बहुत उत्साह प्रदर्शित करती है। ये चर्च-नारियाँ बहुत दुराग्रही होती हैं। वे वहाँ पादरियों के कठोर शासन में रहती है। वे और पादरी मिलकर पृथ्वी को नरक बनाते हैं और धर्म की मिट्टी पलीत करते हैं। इनके अतिरिक्त अमेरिका के निवासी बहुत अच्छे है। वे मुझसे स्नेह करते थे, और मैं उन्हें बहुत स्नेह करता हूँ। मुझे लगता था कि मानो मै भी उन्हीं में से एक हूँ।"
"धर्मों की महासभा के परिणामों के विषय में आपकी क्या राय है ?"
"जैसा कि मुझे लगता है, कि धर्म-महासभा इस विचार से की गयी थी कि संसार के सामने गैर-ईसाइयों का प्रदर्शन हो, पर वहाँ हुआ यह कि गैर-ईसाइयों के हाथ ही बाज़ी रही और सब प्रकार से ईसाइयों का ही प्रदर्शन हो गया। इसलिए ईसाइयों के दृष्टिकोण से वह सफल नहीं हुई। यह मैं इसलिए कह रहा हूँ कि जो रोमन कैथोलिक उस महासभा के संगठनकर्ता थे, वे ही अब, जब कि पेरिस में दूसरी महासभा बुलाने की बात चल रही है, उसका दृढ़तापूर्वक विरोध कर रहे हैं। पर शिकागो की महासभा भारत और भारतीय विचारों के लिए अत्यंत महान सफलता थी। उसने वेदांत की लहर को सहायता दी, जो अब संसार भर में फैल गयी है। अमेरिका के लोग निश्चय ही, कट्टर पादरियों और चर्च-नारियों को छोड़कर, महासभा के परिणामों से बहुत प्रसन्न हैं।"
"स्वामीजी, आपके संदेश के इंग्लैंड में फैलने की क्या संभावना है ?"
"संभावना काफ़ी अच्छी है। थोड़े से वर्षों में ही अंग्रेज़ों का बहुत बड़ा बहुमत वेदांती हो जाएगा। इंग्लैंड में इसकी संभावना अमेरिका से अधिक है। बात यह है कि अमेरिकी प्रत्येक वस्तु का बड़ा धूम-धड़ाका करते हैं, अंग्रेज़ों के विषय में ऐसी बात नहीं है। ईसाई भी अपने नवीन व्यवस्थान को बिना वेदांत समझे नहीं समझ सकते। वेदांत सब धर्मों का बौद्धिक सार है। वेदांत के बिना सब धर्म अंधविश्वास है; इसके साथ मिलकर प्रत्येक वस्तु धर्म बन जाती है।" का "आपने अंग्रेज़ों के चरित्र में कौन सी विशेषता परिलक्षित की?"
"अंग्रेज़ ज्यों ही किसी वस्तु में विश्वास करने लगता है, तुरंत व्यावहारिक कार्य में जुट जाता है। व्यावहारिक कार्य के लिए उसकी क्षमता अद्भुत है। समस्त संसार में अंग्रेज़ भद्र पुरुष अथवा महिला से बढ़िया कोई दूसरा मानव प्राणी नहीं है। अंग्रेज़ों में मेरा विश्वास होने का कारण यही है। जॉन बल व्यवहार में कुछ मोटी बुद्धि के सज्जन हैं। आपको किसी विचार को उस समय तक दोहराना चाहिए, जब तक कि वह उनके मस्तिष्क में न पहुँच जाए, पर एक बार वहाँ पहुँच जाने के बाद वह फिर बाहर नहीं निकलता। इंग्लैंड में एक भी धर्म-प्रचारक अथवा व्यक्ति नहीं था, जिसने मेरे विरुद्ध कुछ कहा हो, एक भी ऐसा नहीं, जिसने किसी प्रकार मेरी बदनामी करने का प्रयत्न किया हो। मुझे आश्चर्य है कि मेरे मित्रों में से बहुत से इंग्लैंड के चर्च के हैं। मुझे पता लगा है कि ये धर्म-संघ के सदस्य इंग्लैड के ऊँचे वर्गों में से नहीं आते। जाति वहाँ भी उतनी कठोर है, जितनी कि यहाँ, और अंग्रेज़ी चर्च के लोग भद्र जनों के वर्ग के हैं। उनका मत आपसे भिन्न हो सकता है, पर इससे उनके आपके मित्र होने में कोई बाधा नहीं पड़ती। इसलिए, मैं अपने देशवासियों को छोटी सी सलाह दूंगा और वह यह है कि तीखा बोलनेवाले धर्म-प्रचारकों की ओर ध्यान न दीजिए, क्योंकि अब मैं जानता हूँ कि वे क्या है। जैसा कि अमेरिकी लोग कहते हैं, हमने उन्हें 'नाप लिया' है। उनके प्रति हमें जो रुख अपनाना है, वह यही है कि हम उन्हें मानते ही नहीं।"
"स्वामी जी, क्या आप मुझे अमेरिका और इंग्लैंड के समाज-सुधार-आंदोलनों के बारे में कुछ बताने की कृपा करेंगे?"
"हाँ। सब सामाजिक उथल-पुथल करनेवाले, कम से कम उनके नेता यह प्रयत्न कर रहे हैं कि उनके समस्त साम्यवादी सिद्धांतों का आधार आध्यात्मिक होना चाहिए, और वह आध्यात्मिक आधार केवल वेदांत में है। मुझसे मेरा भाषण सुननेवाले कितने ही नेताओं ने कहा है कि उन्हें नयी व्यवस्था के आधार के रूप में वेदांत की आवश्यकता है।"
"भारतीय जनसमुदाय के विषय में आपकी क्या राय है ?"
"हम अत्यंत दरिद्र हैं, और हमारी जनता को पार्थिव वस्तुओं के बारे में बहुत कम ज्ञान है। हमारे जन बहुत अच्छे हैं, क्योंकि यहाँ दरिद्र होना अपराध नहीं है। हमारी जनता हिंसक नहीं है। अमेरिका और इंग्लैंड में मैं बहुत बार केवल अपनी वेश-भूषा के कारण भीड़ों द्वारा प्रायः आक्रांत किया गया हूँ। पर भारत में मैंने ऐसी बात कभी नहीं सुनी कि भीड़ किसी मनुष्य की वेश-भूषा के कारण उसके पीछे पड़ गयी हो। अन्य सभी बातों में, हमारी जनता यूरोप की जनता की अपेक्षा कहीं अधिक सभ्य है।"
"हमारी जनता के सुधार के लिए आप क्या सुझाव देंगे ?"
"उन्हें हमें लोकोपयोगी शिक्षा देनी होगी। हमें अपने पूर्वजों द्वारा निश्चित की हई योजना के अनुसार चलना होगा, अर्थात् सब आदर्शों को धीरे-धीरे जनता में पहुँचाना होगा। उन्हें धीरे-धीरे ऊपर उठाइए, अपने बराबर उठाइए। उन्हें लौकिक ज्ञान भी धर्म के द्वारा दीजिए।"
"पर स्वामी जी, क्या आप समझते हैं कि यह काम सरलता से पूरा किया जा सकता है?"
"निश्चय ही इसे धीरे-धीरे आगे बढ़ाना होगा। पर यदि यहाँ काफ़ी आत्म बलिदानी युवक हों, जैसा कि मैं आशा करता हूँ, मेरे साथ काम करेंगे, तो यह कल किया जा सकता है। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि कितने उत्साह और कितने आत्म-बलिदान से कार्य किया जाता है।"
"पर स्वामी जी, यदि उनकी वर्तमान पतित अवस्था उनके पूर्व जन्मों के कम के कारण है, तो आप कैसे समझते हैं कि वे सरलता से उससे छुटकारा पा सकेंगे; और आप उनकी सहायता के लिए क्या उपाय सुझायेंगे?"
स्वामी जी ने तुरंत उत्तर दिया, "कर्म मनुष्य की स्वतंत्रता की एक चिर प्रतिज्ञा है। यदि हम स्वयं को अपने कर्म से नीचे गिरा सकते हैं, तो निश्चय ही यह हमारी क्षमता में है कि हम उसके द्वारा अपने को ऊँचा उठायें। इसके अतिरिक्त जनता ने अपने को केवल अपने कर्म से ही नीचे नहीं गिराया है। इसलिए हमें उनको काम करने के लिए अधिक अच्छी परिस्थितियाँ देनी चाहिए। मैं जातियों को किसी प्रकार मिटाने की बात नहीं कहता। जाति-प्रथा बहुत अच्छी व्यवस्था है। जाति वह योजना है, जिसके अनुसार हम चलना चाहते हैं। जाति वास्तव में क्या है, यह लाखों में से एक भी नहीं समझता। संसार में एक भी देश ऐसा नहीं है, जहाँ जाति-भेद न हो। भारत में हम जाति के द्वारा ऐसी स्थिति में पहुँचते हैं, जहाँ जाति नहीं रह जाती। जाति-प्रथा सदा इसी सिद्धांत पर आधारित है। भारत में योजना है कि प्रत्येक मनुष्य को ब्राह्मण बनाया जाए; ब्राह्मण मानवता का आदर्श है। यदि आप भारत का इतिहास पढ़ेंगे, तो पायेंगे कि सदा नीचे वर्गों को ऊपर उठाने का प्रयत्न किया गया है। बहुत से वर्ग हैं, जो उठाये गए हैं और भी अधिक उठाये जायेंगे, जब तक कि सब ब्राह्मण नहीं हो जायेंगे।
"यह योजना है। हमें उन्हें ऊपर ही उठाना है, किसी को नीचे नहीं गिराना है। और यह काम स्वयं ब्राह्मणों को करना है, क्योंकि यह प्रत्येक अभिजात वर्ग का कर्तव्य है कि वह अपनी क़ब्र आप ही खोदे, और वह जितनी जल्दी खोदता है, वह उतना ही सबके लिए अच्छा होता है। इसमें बिल्कुल देर नहीं लगानी चाहिए। यूरोप और अमेरिका में जिस तरह का जाति-भेद है, भारतीय जाति-भेद उससे अच्छा है। मैं यह नहीं कहता कि वह एकदम अच्छा है। यदि जाति न होती, तो आज आप कहाँ होते ? यदि जाति न होती, तो आपका ज्ञान-भंडार और दूसरी वस्तुएँ कहाँ होती? यदि जाति न होती तो, आज यूरोपवालों के अध्ययन करने के लिए कुछ भी न बचा होता। मुसलमानों ने सब कुछ नष्ट कर दिया होता। वह कौन सा स्थल है, जहाँ हम भारतीय समाज को स्थिर खड़ा पाते हैं ? यह सदा गतिमान रहा है। कभी कभी, जैसे कि विदेशी आक्रमणों के समय में, यह गति मंद रही है, पर दूसरे अवसरों पर अधिक तेज़ रही है। मैं अपने देशवासियों से यही कहता हूँ। मैं उन्हें दोष नहीं देता। मैं उनके अतीत में देखता हूँ। मैं देखता हूँ कि ऐसी परिस्थितियों में कोई भी देश इससे अधिक शानदार काम नहीं कर सकता था। मैं उन्हें बताता हूँ कि आपने बहुत अच्छा काम किया है। और उनसे केवल और अच्छा करने के लिए कहता हूँ।"
"स्वामी जी, जाति के साथ अनुष्ठानों के संबंध के विषय में आपके क्या विचार हैं ?"
"जाति निरंतर बदल रही है, अनुष्ठान निरंतर बदल रहे हैं, यही दशा विधियों की है। यह केवल सार है, सिद्धांत है, जो नहीं बदलता। हमें अपने धर्म का अध्ययन वेदों में करना है; वेदों को छोड़कर अन्य सब ग्रंथों में परिवर्तन अनिवार्य है। वेदों की प्रामाणिकता सदा के लिए है। उनके अतिरिक्त हमारे दूसरे ग्रंथों की प्रामाणिकता केवल विशिष्ट समय के लिए है। उदाहरण के लिए, एक स्मृति एक युग में शक्तिशाली होती है, तो दूसरी दूसरे युग में। महान पैग़ंबर सदा आते रहते हैं और काम करने का मार्ग बताते रहते हैं। कुछ पैगंबरों ने निम्न वर्गों के लिए काम किया है, और मध्व के समान दूसरों ने नारी को वेदों के अध्ययन का अधिकार दिया है। जाति-व्यवस्था का नाश नहीं होना चाहिए; उसे केवल समय समय पर परिस्थितियों के अनुकूल बनाया जाना चाहिए। हमारी पुरानी व्यवस्था के भीतर इतनी जीवनी-शक्ति है कि उससे दो लाख नयी व्यवस्थाओं का निर्माण किया जा सकता है। जाति-व्यवस्था को मिटाने की बात करनी कोरी बुद्धिहीनता है। नयी रीति यह है कि-पुरातन का विकास हो।"
"क्या हिंदुओं को सामाजिक सुधारों की आवश्यकता नहीं है ?"
"निश्चय ही, हमें सामाजिक सुधारों की आवश्यकता है। समय समय पर महान पुरुष प्रगति के नये विचारों का विकास करते है और राजा उन्हें कानून का समर्थन देते हैं। पुराने समय में भारत में समाज-सुधार इसी प्रकार किए गए हैं और वर्तमान समय में ऐसे प्रगतिशील सुधार करने के लिए हमें पहले एक ऐसी अधिकारी सत्ता का निर्माण करना होगा। राजा अब नहीं रहे, अधिकार जनता के पास है। इसलिए हमें उस समय तक ठहरना होगा, जब तक कि लोग शिक्षित न हो जायँ, जब तक वे अपनी आवश्यकताओं को न समझने लगें और अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिए तैयार न हो जायँ और ऐसा करने की क्षमता न प्राप्त कर लें। अल्पमत का अत्याचार संसार में सबसे दारुण अत्याचार है। इसलिए, उन आदर्श सुधारों पर, जो कभी व्यावहारिक नहीं होंगे, अपनी शक्ति व्यर्थ नष्ट करने के स्थान पर, यह अच्छा होगा कि हम इस समस्या की जड़ तक पहुँचें और एक व्यवस्थापिका संस्था का निर्माण करें; तात्पर्य यह कि लोगों को शिक्षित करें, जिससे कि वे स्वयं अपनी समस्याओं का समाधान करने में समर्थ हो सकें। जब तक यह नहीं किया जाता, तब तक ये सब आदर्श सुधार केवल आदर्श ही रहेंगे। नये युग का विधान है कि जनता ही जनता का परित्राण करे; और इसे विशेषतया भारत में, जो अतीत में सदा राजाओं द्वारा शासित रहा है, कार्यान्वित करने में समय लगेगा।"
"क्या आप समझते हैं कि हिंदू समाज यूरोपीय सामाजिक नियमों को सफलतापूर्वक अपना सकता है ?"
"नहीं, पूर्णतया नहीं। मेरा कहना है कि यूरोपीय राष्ट्रों की बहिर्मुखी शक्ति जिस यूनानी मस्तिष्क का परिचय देती है, उसका और हिंदू आध्यात्मिकता का संयोग भारत के लिए एक आदर्श समाज होगा। उदाहरण के लिए, आपके वास्ते यह नितांत आवश्यक है कि अपनी शक्ति को व्यर्थ नष्ट करने और अक्सर निरर्थक बातें बनाने के स्थान पर, आप अंग्रेजों से नेताओं की आज्ञा का तुरंत पालन, ईर्ष्याहीनता, अथक लगन और अटूट आत्मविश्वास की शिक्षा प्राप्त करें। जब वह किसी काम के लिए एक नेता चुन लेता है, तो अंग्रेज़ हार-जीत में सदा उसका साथ देता है और उसकी आज्ञा पालन करता है। यहाँ भारत में प्रत्येक व्यक्ति नेता बनना चाहता है, आज्ञा-पालन करनवाला कोई भी नहीं है। आज्ञा देने की क्षमता प्राप्त करने से पहले प्रत्येक व्यक्ति को आज्ञा-पालन करना सीखना चाहिए। हमारी ईर्ष्याओं का कहीं अंत नहीं है; और जो हिंदू जितना अधिक महत्वपूर्ण है, वह उतना ही अधिक ईर्ष्यालू है। जब तक हिंदू ईर्ष्या से बचना और नेताओं की आज्ञा का पालन करना नहीं सीखता, उसमें संगठन की क्षमता नहीं आयेगी। हम उस समय तक आज की तरह अत्यंत अव्यवस्थित भीड़ बने रहेंगे; हम कोरी आशा करते रहेंगे; कर कुछ भी नहीं सकेंगे। भारत को यूरोप से बाह्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करना सीखना है और यूरोप को भारत से अंतःप्रकृति की विजय सीखनी होगी। तब न हिंदू होंगे और न यूरोपियन, होगी आदर्श मानव-जाति, जिसने बाबा और अंत: दोनों प्रकृतियों को जीत लिया होगा। हमने मानव-जाति के एक पहल का विकास किया है, तो उन्होंने दूसरे का। चाहिए यह कि दोनों का मेल हो। मुक्ति शब्द, जो हमारे धर्म का मूलमंत्र है, वास्तव में, भौतिक मुक्ति, मानसिक मक्ति और आध्यात्मिक मुक्ति का बोध कराता है।"
"स्वामी जी, अनुष्ठान और धर्म के बीच में क्या संबंध है ?"
"अनुष्ठान धर्म की शिशुशाला है। संसार आजकल जैसा है, उसके लिए वे नितांत आवश्यक हैं। हमें लोगों को नये और ताज़े अनुष्ठान देने होंगे। यह काम चिंतकों के एक दल को अपने ऊपर लना होगा। पुराने अनुष्ठानों को समाप्त किया जाना चाहिए और उनके स्थान पर नयों की स्थापना होनी चाहिए।"
"तो आप अनुष्ठानों को मिटाने का समर्थन करते हैं; ठीक है न ?"
"नहीं, मेरा ध्येय निर्माण है, विनाश नहीं। वर्तमान अनुष्ठानों में से नये अनुष्ठानों का विकास करना होगा। प्रत्येक वस्तु में विकास की अनंत क्षमता है, ऐसा मेरा विश्वास है। एक परमाणु के पीछे समस्त ब्रह्मांड की शक्ति है। हिंदू जाति के इतिहास में सदा केवल निर्माण का प्रयत्न रहा है, विनाश का कभी नहीं किया गया। एक संप्रदायवालों ने विनाश करना चाहा और वे भारत से बाहर निकाल दिए गए; वे बौद्ध थे। हमारे यहाँ से सुधारक-शंकर, रामानुज, मध्व और चैतन्य हुए हैं। ये महान सुधारक थे, जो सदा निर्माता रहे और उन्होंने अपने समय की परिस्थिति के अनुसार निर्माण किया। यह काम करने की हमारी विशिष्ट विधि है। सब आधुनिक सुधारक यूरोप के विनाशात्मक सुधार की नक़ल करना चाहते हैं, इससे न कभी किसी की भलाई हुई है और न होगी। केवल एक आधुनिक सुधारक हुए हैं, जो अधिकतर निर्माता रहे हैं और वे थे राजा राममोहन राय। हिंदू जाति की प्रगति वेदांती आदर्शों को प्राप्त करने की दिशा में रही है। भारतीय जीवन का समस्त इतिहास वह प्रयत्न है, जो उसने सुख अथवा दुःख में होकर वेदांत के आदर्शों तक पहुँचने के लिए किया है। जब कभी कोई ऐसा सुधारवादी संप्रदाय अथवा धर्म उदित हुआ, जिसने वेदांती आदर्श की अवहेलना की, तो उसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया।"
"आपका यहाँ का कार्यक्रम क्या है ?"
"मैं अपनी योजना को कार्यान्वित करने के लिए दो संस्थाएँ चलाना चाहता हूँ, एक मद्रास में और एक कलकत्ते में। संक्षेप में वह योजना है: वेदांती आदर्शों को संत और पापी, ज्ञानी और मूर्ख, ब्राह्मण और चांडाल के नित्यप्रति के व्यावहारिक जीवन में प्रतिष्ठित करना।"
यहाँ हमारे प्रतिनिधि ने उनसे भारतीय राजनीति के विषय में कुछ प्रश्न पूछे, पर इससे पहले कि स्वामी जी उनका कुछ उत्तर देते, गाड़ी एगमोर प्लेटफार्म पर पहुँच गयी। जल्दी में स्वामी जी के मुँह से जो निकला, वह यह था कि वे भारतीय और यूरोपीय समस्याओं के राजनीतिक उलझाव के परम विरोधी हैं। यहाँ यह समालाप समाप्त हो गया।
पश्चिम में प्रथम हिंदू संन्यासी का मिशनरी कार्य और भारत के पुनर्जागरण के लिए उनकी योजना
('मद्रास टाइम्स', फरवरी, १८९७)
पिछले कुछ सप्ताहों से मद्रास की हिंदू जनता बडी उत्सुकता के साथ विश्वविख्यात महान हिंदू संन्यासी स्वामी विवेकानंद के आगमन की राह देख रही है। इस समय उनका नाम प्रत्येक की ज़बान पर है। स्कूल में, कॉलेज में, हाईकोर्ट में, मेरीना पर और मद्रास की गलियों तथा बाजारों में हज़ारों उत्सुक लोग यह पूछते सुने जा सकते हैं कि स्वामी जी कब आ रहे हैं। मुफ़स्सिल से विश्वविद्यालय की परीक्षाओं के लिए आनेवाले अनेक विद्यार्थी स्वामी जी की प्रतीक्षा में यही ठहरे हुए हैं और अपने माता-पिता के तुरंत घर लौट आने के आदेशों के बावजूद अपने होस्टल का बिल बढ़ा रहे हैं। कुछ दिनों में स्वामी जी हमारे बीच में होंगे। इस प्रेसीडेंसी में उनका दूसरे स्थानों पर जो स्वागत हुआ है उससे, यहाँ होनेवाली तैयारियों से, जहाँ यह 'पैग़ंबर' हिंदू जनता के खर्च पर ठहराये जायेंगे, उस कैसिल करनान पर निर्मित तोरण-द्वारों से, और उस रुचि से, जो इस कार्य में माननीय श्रीमान् न्यायाधीश सुब्रह्मण्य अय्यर जैसे नगर के प्रमुख हिंदू द्वारा इस आंदोलन में प्रदर्शित की गयी है, इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि स्वामी जी का शानदार स्वागत होगा। यहाँ मद्रास में ही स्वामी जी की महान क्षमताएँ सबसे पहले पहचानी गयीं और उन्हें शिकागो भेजने का प्रबंध किया गया। अब मद्रास को फिर इस असंदिग्ध रूप से महान व्यक्ति का स्वागत करने का सौभाग्य प्राप्त होगा, जिसने अपनी मातृभूमि का मान बढ़ाने के लिए इतना काम किया है। चार वर्ष पहले जब स्वामी जी यहाँ आये थे, तो वे लगभग एक अज्ञात व्यक्ति थे। सेंट थोमें में एक अज्ञात बंगले में उन्होंने लगभग दो महीने बिताये। इस अवधि में उन्होंने निरंतर धार्मिक विषयों पर वार्तालाप किया और उन सब आनेवालों को शिक्षा तथा उपदेश दिया, जो उनकी बात सुनना चाहते थे। उस समय भी कुछ साधारण से अधिक पैनी दृष्टि के शिक्षित युवकों ने कहा था कि इस मनुष्य में कुछ विशिष्टता है, और भविष्यवाणी की थी कि इनकी यह 'शक्ति' इन्हें अन्य सब लोगों से ऊँचा उठायेगी और उन्हें मनुष्यों का नेता बनने में विशेष रूप से सहायता करेगी। जिनकी उस समय 'भटके हुए उत्साही' और 'स्वप्नदर्शी पुनर्जागरणवादी' कहकर अवज्ञा की जाती थी, इन युवकों को अब इस बात का अत्यंत संतोष है कि उनके स्वामी जी, जैसा कि उन्हें कहना पसंद करते हैं, महान यूरोपीय और अमेरिकी ख्याति प्राप्त करके उनके पास लौट आये हैं। स्वामी जी का संदेश अनिवार्यतः आध्यात्मिक है। उनका दृढ़ विश्वास है कि भारत का, इस आध्यात्मिकता की मातृभूमि का भविष्य बहुत उज्ज्वल है। उनको आशा है कि जिसे वे वेदांत का उदात्त सत्य कहते हैं, पश्चिम के लोग उसे अधिकाधिक समझने लगेंगे। उनका आदर्श-वाक्य है, 'सहायता, झगड़ा नहीं', 'स्वांगीकरण, विनाश नहीं, 'समन्वय और शांति, संघर्ष नहीं।' उनके साथ अन्य धर्मावलंबियों का चाहे कुछ भी मतभेद हो, केवल कुछ ही इस बात को अस्वीकार करेंगे कि स्वामी जी ने 'हिंदू धर्म में स्थित शुभ' के प्रति पश्चिमी संसार की आँखें खोलकर अपने देश की महान सेवा की है। वे सदा उस प्रथम हिंदू संन्यासी के रूप में स्मरण किए जायेंगे, जिन्होंने पश्चिम को उस बात का संदेश पहुँचाने के लिए समुद्र पार करने का साहस किया था, जिसे वे धार्मिक शांति समझते हैं।
हमारे पत्र के एक प्रतिनिधि स्वामी विवेकानंद से पश्चिम में उनके संदेश की सफलता का कुछ विवरण प्राप्त करने की दृष्टि से मिले। स्वामी जी ने बहुत नम्रतापूर्वक हमारे प्रतिनिधि का स्वागत किया और उन्हें अपनी बगल की कुर्सी पर बैठने का संकेत किया। स्वामी जी पीले वस्त्र धारण किए हुए शांत, गंभीर और गौरवयुक्त दिखायी देते थे, और किसी भी प्रश्न का उत्तर देने के लिए तैयार जान पड़ते थे। हम स्वामी जी के अपने प्रतिनिधि द्वारा शीघ्रलिपि में लिखे गए शब्दों को यथावत् यहाँ दे रहे हैं।
"क्या मैं आपके आरंभिक जीवन के बारे में कुछ बातें जान सकता हूँ?" हमारे प्रतिनिधि ने पूछा।
स्वामी जी ने कहा, "जब मैं कलकत्ते में विद्यार्थी था, तब मेरी प्रकृति धार्मिक थी। मैं अपने जीवन के उस काल में भी विवेचक था, मुझे केवल शब्दों से संतोष नहीं होता था। बाद में मैं रामकृष्ण परमहंस से मिला, मैं उनके साथ बहुत समय तक रहा और मैंने उनके चरणों में अध्ययन किया। अपने पिता की मृत्यु के बाद मैं भारत में भ्रमण करने लगा और कलकत्ते में एक छोटा सा आश्रम आरंभ किया। अपनी यात्राओं में मद्रास आया। यहाँ मैंने मैसूर के महाराजा और रामनाड़ के राजा से सहायता पायी।"
"वह क्या बात थी, जिसने आपको पश्चिमी देशों में हिंदू धर्म का संदेश ले जाने की प्रेरणा दी ?"
"मैं अनुभव प्राप्त करना चाहता था। मेरे विचार से हमारे राष्ट्रीय पतन का असली कारण यह है कि हम दूसरे राष्ट्रों से नहीं मिलते-जुलते-यही अकेला और एकमात्र कारण है। हमें कभी दूसरों के अनुभवों के साथ अपने अनुभवों के मिलान करने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ। हम कूपमंडूक-कुंए के मेंढक बने रहे।"
"आपने पश्चिम में काफ़ी अधिक यात्रा की है ?"
"मैं यूरोप में जर्मनी और फ्रांस सहित काफ़ी स्थानों पर गया हूँ, पर मेरे कार्य के मुख्य क्षेत्र इंग्लैंड और अमेरिका थे। आरंभ में मैंने वहाँ अपने को एक विकट स्थिति में पाया। कारण यह था कि जो लोग भारत से वहाँ गए थे, उनका रुख इस देश के निवासियों के प्रति विरोधपूर्ण था। मेरा विश्वास है कि भारतीय राष्ट्र समस्त राष्ट्रों में अत्यधिक सदाचारी और धार्मिक राष्ट्र है। किसी दूसरे राष्ट्र से हिंदुओं की तुलना करना ईश-निंदा करने के समान पातक होगा। पहले-पहल बहुत से लोगों ने मेरा विरोध किया, बड़ी बड़ी मिथ्या बातों की उद्भावना की; यह कहा गया कि मैं एक कपटी पुरुष हूँ, मेरे यहाँ पत्नियों का एक हरम, और बच्चों की आधी सेना है। पर इन मिशनरियों का मुझे जो अनुभव हुआ, उससे मेरी आँखें खुल गयीं कि ये लोग धर्म के नाम पर क्या कुछ कर सकते हैं ? इंग्लैंड में मिशनरी कहीं नहीं थे। वहाँ मुझसे लड़ने के लिए कोई नहीं आया। मिस्टर लैंड मुझे पीठ पीछे गालियाँ देने के लिए अमेरिका गए, पर लोगों ने उनकी बात नहीं सुनी। मैं वहाँ बहुत जनप्रिय था। जब मैं इंग्लैंड लौटा, तो मैंने सोचा था कि यह मिशनरी वहाँ मेरे ऊपर आक्रमण करेगा, पर सत्य ने उसका मुंह बंद कर दिया। इंग्लैंड में सामाजिक स्थिति भारत के जाति-भेद की तुलना में अधिक कठोर है। अंग्रेज़ी चर्च के लोग सब भद्र जनों की संतान है, जो कि बहुत से मिशनरी नहीं हैं। उन्होंने मेरे प्रति बहुत सहानुभूति प्रदर्शित की। मैं समझता हूँ कि अंग्रेज़ी चर्च के लगभग तीस पादरी धार्मिक विवेचन की सभी बातों में मेरे साथ पूर्ण रूप से सहमत हैं। मुझे यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि अंग्रेज़ धर्माचार्यों ने मुझसे मतभेद होने पर भी, न तो पीठ पीछे मुझे गालियाँ दी और न धोखा देकर मुझे हानि ही पहुँचायी। यहाँ जाति और आनुवंशिक संस्कृति का लाभ स्पष्ट दिखायी देता है।"
"पश्चिम में आपको कितनी सफलता मिली है ?"
"अमेरिका में इंग्लैंड की अपेक्षा बहुत अधिक लोगों की सहानुभूति मेरे साथ थी। वहाँ नीची जातिवाले मिशनरियों की गालियों की बौछारों के कारण मेरे उद्देश्य को अधिक सफलता मिली। मेरे पास रुपया बिल्कुल नहीं था। भारत के लोगों ने मुझे मार्ग-व्यय भर दिया था, और वह थोड़े ही समय में खर्च हो गया। मुझे यहाँ की भाँति वहाँ भी व्यक्तियों के दान पर ही निर्भर रहना पड़ा। अमेरिकी लोग बहुत अतिथि-सत्कारी हैं। अमेरिका में एक तिहाई लोग ईसाई हैं, पर शेष का कोई धर्म नहीं है अर्थात् उनका संबंध किसी संप्रदाय से नहीं है, पर उनमें बहुत से अत्यंत आध्यात्मिक व्यक्ति पाये जाते हैं। मैं समझता हूँ कि इंग्लैंड में काम पक्का है। यदि मैं कल मर जाऊँ और किसी संन्यासी को न भेज सकूँ, तो भी इंग्लैंड का काम चलता रहेगा। मनुष्य के रूप में अंग्रेज़ बहुत अच्छा होता है। उसे बचपन से ही अपनी भावना को दबाकर रखना सिखाया जाता है। वह कुछ मोटी बुद्धिवाला होता है, फ्रांसीसी अथवा अमेरिकी के समान तेज़ नहीं होता। वह अत्यधिक व्यावहारिक होता है। अमेरिकी जाति की आयु अभी इतनी कम है कि त्याग की बात उनकी समझ में नहीं आ सकती। इंग्लैंड ने युगों से संपत्ति और विलास का आनंद लिया है। वहाँ बहुत से लोग त्याग के लिए तैयार हैं। जब मैंने इंग्लैंड में पहला भाषण दिया, तो मेरी कक्षा छोटी सी, बीस या तीस व्यक्तियों की थी। वह मेरे जाने के बाद भी चलती रही, और जब मैं अमेरिका से वापस लौटा, तो मुझे एक हज़ार श्रोता प्राप्त हुए। अमेरिका में मुझे और भी अधिक श्रोता मिलते थे; वहाँ मैंने तीन वर्ष लगाये थे, जबकि इंग्लैंड को केवल एक वर्ष दिया था। वहाँ मेरे दो संन्यासी हैं--एक इग्लैंड में और दूसरा अमेरिका में, और मेरी इच्छा है कि मैं दूसरे देशों में भी संन्यासी भेजूं।
"अंग्रेज़ लोग अत्यंत मेहनती हैं। उन्हें एक विचार दे दीजिए, और आप विश्वास रखिए कि वह नष्ट नहीं होगा; शर्त यह है कि बात उनकी समझ में आ जाए। यहाँ लोगों ने वेदों को छोड़ दिया है, और आपका समस्त दर्शन रसोई में है। आजकल भारत का धर्म 'मत छुओ-वाद' है। यह ऐसा धर्म है, जिसे अंग्रेज़ कभी स्वीकार नहीं करेंगे। हमारे पूर्वजों के विचारों को और उनके द्वारा अन्वेषित आश्चर्यजनक जीवनदायी सिद्धांतों को प्रत्येक राष्ट्र ग्रहण कर लेगा। अंग्रेज़ी चर्च के उच्चतम अधिकारियों ने मुझसे कहा है कि आप वेदांत को बाइबिल में स्थापित किए दे रहे हैं। वर्तमान हिंदू धर्म एक अधःपतन है। आजकल लिखी जानेवाली दर्शनशास्त्र की एक भी पुस्तक ऐसी नहीं है, जिसमें हमारे वेदांत के बारे में कुछ न कहा गया हो-हर्बर्ट स्पेंसर की रचनाओं में भी यह उपस्थित है। इस युग का दर्शन अद्वैतवाद है, सब इसकी चर्चा करते हैं; केवल यूरोप में लोग मौलिक होने का प्रयत्न करते हैं। वे हिंदुओं की चर्चा अवज्ञा से करते हैं, पर उसके साथ ही हिंदुओं द्वारा दिए गए सत्यों को निगल लेते हैं। प्रोफ़ेसर मैक्समूलर पूर्ण वेदांती हैं और उन्होंने वेदांत में शानदार काम किया है। वे पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं।"
"आप भारत के पुनर्जागरण के लिए क्या करना चाहते हैं ?"
"मैं समझता हूँ कि हमारा सबसे बड़ा राष्ट्रीय पाप जनसमुदाय की उपेक्षा है, और वह भी हमारे पतन का एक कारण है। हम कितनी ही राजनीति बरतें, उससे उस समय तक कोई लाभ नहीं होगा, जब तक कि भारत का जनसमुदाय एक बार फिर सुशिक्षित, सुपोषित और सुपालित नहीं होता। वे हमारी शिक्षा के लिए धन देते हैं, हमारे मंदिर बनाते हैं, और बदले में ठोकरें पाते हैं। वे व्यवहारतः हमारे दास है। यदि हम भारत को पुनर्जीवित करना चाहते हैं, तो हमें उनके लिए काम करना होगा। मैं युवकों को धर्म-प्रचारक के रूप में प्रशिक्षित करने के लिए पहले दो केंद्रीय संस्थाएँ आरंभ करना चाहता हूँ, एक मद्रास में और दूसरी कलकत्ते में। कलकत्ते की संस्था बनाने के लिए मेरे पास धन है। मेरे उद्देश्य के लिए अंग्रेज़ प्रबंध कर देंगे।
"मेरा विश्वास युवा पीढ़ी में, नयी पीढ़ी में है; मेरे कार्यकर्ता उनमें से आयेंगे। सिंहों की भाँति वे समस्त समस्या का हल निकालेंगे। मैंने अपना आदर्श निर्धारित कर लिया है और उसके लिए अपना समस्त जीवन दे दिया है। यदि मुझे सफलता नहीं मिलती, तो मेरे बाद कोई अधिक उपयुक्त व्यक्ति आयेगा और इस काम को सँभालेगा, और मैं अपना संतोष प्रयत्न करने में ही मानूंगा। आपके सामने है जनसमुदाय को उसका अधिकार देने की समस्या। आपके पास संसार का महानतम धर्म है और आप जनसमुदाय को सारहीन और निरर्थक बातों पर पालते हैं। आपके पास चिरंतन बहता हुआ स्रोत है और आप उन्हें गंदी नाली का पानी पिलाते हैं। आपका मद्रास का स्नातक एक नीची जाति के व्यक्ति का स्पर्श नहीं करेगा, पर वह अपनी शिक्षा के लिए उससे रुपया खींचने को तैयार है। मैं पहले इन दोनों संस्थाओं को धर्म-प्रचारकों को शिक्षा देने के लिए खोलना चाहता हूँ। ये धर्मोंपदेशक हमारे जनसमुदाय के दोनों प्रकार के, आध्यात्मिक और लौकिक शिक्षक होंगे। वे एक केंद्र से दूसरे केंद्र में उस समय तक फैलेंगे, जब तक कि हम संपूर्ण भारत पर नहीं छा जायँगे। सबसे बड़ी बात यह है कि अपने में विश्वास रहे, ईश्वर में विश्वास होने से भी पहले; पर कठिनाई यह मालूम होती है कि दिन-प्रतिदिन अपने ऊपर से हमारा विश्वास घटता जा रहा है। सुधारकों के विरुद्ध भेरी यही आपत्ति है। अमार्जित होने के बावजूद सनातनी लोगों में अपने ऊपर अधिक विश्वास और अधिक शक्ति है, पर सुधारक केवल यूरोपीय लोगों के चंगुल में फँसते हैं और उनके अहंकार को उभारने में सहायक होते हैं। दूसरे देशों के जनसमुदायों की तुलना में हमारे जनसमुदाय देवता हैं। केवल यही देश ऐसा है, जहाँ दरिद्रता अपराध नहीं है। वे मानसिक और शारीरिक रूप से सुंदर हैं; पर हमने उनकी इतनी अवज्ञा की है, उनसे इतनी घृणा की है कि उनका अपने ऊपर से विश्वास उठ गया है। वे समझने लगे हैं कि वे जन्मजात दास हैं। उन्हें उनका अधिकार दीजिए और उन्हें अपने अधिकारों पर खड़ा होने दीजिए। यह है अमेरिकी सभ्यता की महिमा। अभी जहाज से उतरे हुए झुके घुटनेवाले और अधभूखे आयरिश, जिसके पास केवल एक छोटी सी छड़ी और कपड़े की पोटली है, उसकी तुलना उसके उस रूप से कीजिए, जब वह कुछ महीने अमेरिका में रह लेता है। अब वह दृढ़तापूर्वक और तनकर चलता है। वह उस देश से जहाँ वह दास था, एक ऐसे देश में आया है, जहाँ वह भाई है।
"विश्वास कीजिए कि आत्मा अमर है, अनंत है और सर्वशक्तिमान है। मैं शिक्षा को गुरु के साथ संपर्क-गुरु-गृहवास-समझता हूँ। गुरु के व्यक्तिगत जीवन के अभाव में शिक्षा नहीं हो सकती। अपने विश्वविद्यालयों को लीजिए। अपने पचास वर्ष के अस्तित्व में उन्होंने क्या किया है ? उन्होंने एक भी मौलिक व्यक्ति पैदा नहीं किया। वे केवल परीक्षा लेने की संस्थाएँ हैं। सबके कल्याण के लिए बलिदान की भावना का अभी हमारे राष्ट्र में विकास नहीं हुआ है।"
"श्रीमती बेसेंट और थियोसॉफ़ी के बारे में आपका क्या विचार है ?"
"श्रीमती बेसेंट बहुत अच्छी महिला हैं। मैंने लंदन में उनके लॉज में भाषण दिया था। मैं व्यक्तिगत रूप से उनके बारे में विशेष नहीं जानता। हमारे धर्म के विषय में उनका ज्ञान बहुत सीमित है। वे यहाँ-वहाँ से कुछ टुकड़े उठा लेती हैं। उन्हें कभी इसका पूर्ण अध्ययन करने का समय नहीं मिला है। उनका बड़े से बड़ा शत्रु भी यह स्वीकार करेगा कि वे श्रेष्ठतम सच्ची महिलाओं में से एक हैं। वे इंग्लैंड में सर्वोत्तम वक्ता समझी जाती हैं। वे एक संन्यासिनी हैं। पर मैं महात्माओं और कुथुमियों (Kuthumis) में विश्वास नहीं करता। वे थियोसॉफ़िकल सोसाइटी से अपना संबंध तोड़ लें, अपने पैरों पर खड़ी हों और जिस बात को वे ठीक समझती हों, उसका प्रचार करें।"
सामाजिक सुधारों की बात करते समय विधवा-विवाह के संबंध में स्वामी जी ने कहा, "मैंने अभी तक ऐसा देश नहीं देखा है, जिसके भाग्य का निर्णय इस बात से होता हो कि वहाँ की विधवाओं को कितने पति प्राप्त होते हैं।"
हमारे प्रतिनिधि यह जानते थे कि नीचे कई व्यक्ति स्वामी जी से भेंट करने के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं। इसलिए पत्रकारिता संबंधी यंत्रणा की स्वीकृति देकर जो कृपा की थी, उसके लिए उन्होंने स्वामी जी को धन्यवाद दिया, और उनसे विदा ली।
यह भी उल्लेखनीय है कि स्वामी जी के साथ श्री और श्रीमती जे०एच०सेवियर, श्री टी० जी० हैरिसन, कोलंबो के एक बौद्ध सज्जन और श्री जे०जे० गुडविन है। ऐसा जान पड़ता है कि श्री और श्रीमती सेवियर इस विचार से स्वामी जी के साथ है कि वे हिमालय में बसेंगे; और वहाँ वे स्वामी जी के भारत आने के इच्छुक पश्चिमो शिष्यों के लिए एक निवास बनायेंगे। बीस वर्षों से श्री और श्रीमती सेवियर किसी विशेष धर्म के अनुयायी नहीं रहे हैं। उन्हें जिन धर्मों का उपदेश मिला था, उनमें से किसी से संतोष नहीं हुआ। पर स्वामी जी के भाषणों का एक क्रम सुनने के बाद उन्होंने स्वीकार किया कि उन्हें हृदय और मस्तिष्क को संतोष देनेवाला एक धर्म मिल गया है। तब से वे स्विटज़रलैंड, जर्मनी और इटली में, और अब भारत में स्वामी के साथ हैं। श्री गुडविन, जो इंग्लैंड के एक पत्रकार हैं, चौदह महीने पहले जब वे स्वामी जी से प्रथम बार न्यूयार्क में मिले थे, उनके शिष्य बने थे। उन्होंने अपनी पत्रकारिता छोड़ दी है। वे अब स्वामी जी के साथ रहते हैं और उनके भाषणों को शीघ्रलिपि में लिखते हैं। वे प्रत्येक अर्थ में एक सच्चे 'शिष्य' हैं, और कहते हैं कि वे अपनी मृत्युपर्यंत स्वामी जी के साथ रहने की आशा करते हैं।
राष्ट्रीय आधार पर हिंदू धर्म का पुनर्जागरण
('प्रबुद्ध भारत', सितंबर, १८९८)
'प्रबुद्ध भारत' के एक प्रतिनिधि ने अभी हाल में स्वामी विवेकानंद से भेंट की और उन महान उपदेशक से पूछा, "स्वामी जी, आप अपने कार्यक्रम की सबसे विशिष्ट बात क्या समझते हैं ?"
"आक्रमण", स्वामी जी ने तुरंत उत्तर दिया, "आक्रमण केवल धार्मिक अर्थ में। दूसरे संप्रदायों और दलों ने आध्यात्मिकता का भारत भर में प्रचार किया, पर बुद्ध के समय से हमीं पहले हैं, जिन्होंने सीमाओं को तोड़ा है और संसार को मिशनरी के उत्साह से आप्लावित करने का प्रयत्न किया है।"
"और भारत के संबंध में आप अपने आंदोलन की कार्य-पद्धति क्या समझते हैं?"
"हिंदू धर्म के व्यापक आधारों को प्राप्त करना और उनके प्रति राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत करना। आजकल भारत में 'हिंदू' शब्द के अंतर्गत तीन दल आते हैं: सनातनी, मुसलमान काल के सुधारवादी संप्रदाय और आधुनिक युग के सुधारवादी संप्रदाय। उत्तर से दक्षिण तक हिंदुओं का केवल एक बात में एक मत है, और वह है गोमांस न खाना।"
"वेदों के प्रति व्यापक प्रेम के बारे में नहीं है ?"
"निश्चय ही नहीं। यही है, जिसे हम फिर से जगाना चाहते हैं। भारत ने अभी बुद्ध के कार्य को आत्मसात नहीं किया है। वह उनकी वाणी से सम्मोहित हो गया है, उसके द्वारा अनुप्राणित नहीं।"
"आप आज के भारत में बुद्धमत का महत्व किस प्रकार देखते हैं ?"
"यह स्पष्ट और अत्यधिक है। आप देखते हैं कि भारत किसी वस्तु को खोता नहीं; उसे प्रत्येक वस्तु को हाड़-मांस में परिवर्तित करने में समय लगता है। बुद्ध ने पशु-बलि पर प्रहार किया था और भारत उससे अभी तक नहीं सँभला है; और बुद्ध ने कहा, 'गाय को मत मारो', और अब गोवध हमारे लिए असंभव हो गया है।"
"स्वामी जी, आपने जिन तीन दलों के नाम लिये हैं, उनमें से आप किसके साथ हैं ?"
"हम सभी के साथ हैं। हम सनातनी हिंदू है", स्वामी जी ने कहा और वे अचानक बड़ी गंभीरता से बलपूर्वक बोले, "पर हम अपने आपको 'मत छुओ-वाद' में बिल्कुल सम्मिलित नहीं करना चाहते। वह हिंदू धर्म नहीं है: वह हमारे किसी ग्रंथ में नहीं है; वह एक सनातनी अंधविश्वास है, जिसने हमारी राष्ट्रीय क्षमता को सदा हानि पहुँचायी है।"
"तब आप वास्तव में जो चाहते हैं, वह है राष्ट्रीय क्षमता?"
"निश्चय ही। क्या आप कोई ऐसी बात बता सकते हैं, जिसके कारण भारत आर्य राष्ट्रों में निचले स्थान पर पड़ा रहे ? क्या वह बुद्धि में मंद है ? क्या वह कौशल में कम है ? आप उसकी कला को देखिए, उसके गणित को देखिए, उसके दर्शन को देखिए, और फिर कहिए कि क्या आप मेरे प्रश्नों के उत्तर में 'हाँ' कह सकते हैं ? केवल इस बात की आवश्यकता है कि वह सम्मोहन को दूर करें, युगों की निद्रा से जाग जाए और राष्ट्रों की पंक्ति में अपना वास्तविक स्थान ग्रहण करें।"
"पर भारत का अपना गंभीर आंतरिक जीवन रहा है। स्वामी जी, क्या आपको इसका भय नहीं है कि उसको क्रियाशील बनाने के प्रयत्न में आप उससे उसकी एक महान निधि ले लेंगे?"
"बिल्कुल नहीं। अतीत के इतिहास ने भारत के आंतरिक जीवन का और पश्चिम की सक्रियता (अर्थात् बाह्य जीवन) का विकास किया है। अभी तक ये एक दूसरे से दूर रहे हैं। अब समय आ गया है कि वे परस्पर मिलें। रामकृष्ण परमहंस जीवन की गहराइयों के प्रति जाग्रत थे, फिर भी बाहरी तल पर उनसे अधिक सक्रिय और कौन था? यही भेद की बात है। आप अपने जीवन को महासागर के समान गहरा बनाइए, पर उसे आकाश के समान विस्तृत भी होने दीजिए।
"निश्चय ही नहीं। यही है, जिसे हम फिर से जगाना चाहते हैं। भारत ने अभी बुद्ध के कार्य को आत्मसात नहीं किया है। वह उनकी वाणी से सम्मोहित हो गया है, उसके द्वारा अनुप्राणित नहीं।"
"आप आज के भारत में बुद्धमत का महत्व किस प्रकार देखते हैं ?"
"यह स्पष्ट और अत्यधिक है। आप देखते हैं कि भारत किसी वस्तु को खोता नहीं; उसे प्रत्येक वस्तु को हाड़-मांस में परिवर्तित करने में समय लगता है। बुद्ध ने पशु-बलि पर प्रहार किया था और भारत उससे अभी तक नहीं सँभला है; और बुद्ध ने कहा, 'गाय को मत मारो', और अब गोवध हमारे लिए असंभव हो गया है।"
"स्वामी जी, आपने जिन तीन दलों के नाम लिये हैं, उनमें से आप किसके साथ हैं ?"
"हम सभी के साथ हैं। हम सनातनी हिंदू है", स्वामी जी ने कहा और वे अचानक बड़ी गंभीरता से बलपूर्वक बोले, "पर हम अपने आपको 'मत छुओ-वाद' में बिल्कुल सम्मिलित नहीं करना चाहते। वह हिंदू धर्म नहीं है : वह हमारे किसी ग्रंथ में नहीं है; वह एक सनातनी अंधविश्वास है, जिसने हमारी राष्ट्रीय क्षमता को सदा हानि पहुँचायी है।"
"तब आप वास्तव में जो चाहते हैं, वह है राष्ट्रीय क्षमता?"
"निश्चय ही। क्या आप कोई ऐसी बात बता सकते हैं, जिसके कारण भारत आर्य राष्ट्रों में निचले स्थान पर पड़ा रहे ? क्या वह बुद्धि में मंद है ? क्या वह कौशल में कम है ? आप उसकी कला को देखिए, उसके गणित को देखिए, उसके दर्शन को देखिए, और फिर कहिए कि क्या आप मेरे प्रश्नों के उत्तर में 'हाँ' कह सकते हैं ? केवल इस बात की आवश्यकता है कि वह सम्मोह को दूर करे, युगों की निद्रा से जाग जाए और राष्ट्रों की पंक्ति में अपना वास्तविक स्थान ग्रहण करे।"
"पर भारत का अपना गंभीर आंतरिक जीवन रहा है। स्वामी जी, क्या आपको इसका भय नहीं है कि उसको क्रियाशील बनाने के प्रयत्न में आप उससे उसकी एक महान निधि ले लेंगे?"
"बिल्कुल नहीं। अतीत के इतिहास ने भारत के आंतरिक जीवन का और पश्चिम की सक्रियता (अर्थात् बाह्य जीवन) का विकास किया है। अभी तक ये एक दूसरे से दूर रहे हैं। अब समय आ गया है कि वे परस्पर मिलें। रामकृष्ण परमहंस जीवन की गहराइयों के प्रति जाग्रत थे, फिर भी बाहरी तल पर उनसे अधिक सक्रिय और कौन था? यही भेद की बात है। आप अपने जीवन को महासागर के समान गहरा बनाइए, पर उसे आकाश के समान विस्तृत भी होने दीजिए।
स्वामी जी कहते रहे, "यह एक विचित्र बात है कि आंतरिक जीवन अक्सर वहाँ अत्यंत गहराई के साथ विकसित होता है, जहाँ बाहरी दशाएँ अत्यंत बाधक और सीमित होती हैं। पर यह संयोग अवसर की बात है--अनिवार्य नहीं है, और यदि हम यहाँ भारत में अपने आपको ठीक कर लेते हैं, तो संसार भी 'ठीक हो जाएगा।' क्योंकि क्या हम सब एक नहीं हैं ?"
"स्वामी जी, आपकी पिछली बात से एक दूसरा प्रश्न उठता है। श्री रामकृष्ण किस अर्थ में इस जाग्रत हिंदू धर्म के एक अंश हैं ?"
स्वामी जी ने कहा, "यह निश्चय करने का काम मेरा नहीं है। मैंने कभी व्यक्तियों का प्रचार नहीं किया। स्वयं मेरे जीवन का पथ इस महान आत्मा के उत्साह से प्रदर्शित है। पर दूसरे लोग स्वयं अपने लिए इस बात का निर्णय करें कि वे इस मत से कितने सहमत हैं। संसार को अंतःस्फुरण केवल एक स्रोत से नहीं मिलता, चाहे वह कितना ही विशाल हो। प्रत्येक पीढ़ी को नये सिरे से स्फुरित किया जाना चाहिए। क्या हम सब ईश्वर नहीं हैं ?"
"धन्यवाद। अब मुझे आपसे केवल एक प्रश्न और पूछना है। आपने अपने देशवासियों के प्रति अपने आंदोलन का रुख और कार्य-प्रणाली स्पष्ट की है। क्या इसी प्रकार आप व्यापक रूप से अपनी कार्य-विधि के बारे में कुछ कह सकेंगे?"
स्वामी जी ने कहा, "हमारी कार्य-विधि बहुत सरलता से बतायी जा सकती है। वह केवल राष्ट्रीय जीवन को पुनः स्थापित करना है। बुद्ध ने 'त्याग' का प्रचार किया था। भारत ने सुना और फिर भी छः शताब्दियों में वह अपने उच्चतम शिखर पर पहुँच गया। भेद यहाँ है। भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं: त्याग और सेवा। आप इसकी इन धाराओं में तीव्रता उत्पन्न कीजिए, और शेष सब अपने आप ठीक हो जाएगा। इस देश में आध्यात्मिकता का झंडा कितना ही ऊँचा क्यों न किया जाए, वह पर्याप्त नहीं होता। केवल इसी में भारत का उद्धार है।
भारतीय नारियाँ-उनका भूत , वर्तमान और भविष्य
('प्रबुद्ध भारत', दिसंबर, १८९८)
हमारा प्रतिनिधि लिखता है :
यह हिमालय की एक सुहावनी घाटी में एक रविवार के तड़के की बात है कि मैं अंत में अपने संपादक की आज्ञा पालन करने और स्वामी विवेकानंद से भारतीय नारियों की स्थिति और भविष्य के बारे में उनके विचारों का कुछ पता लगाने के लिए मिलने में सफल हुआ। जब मैंने अपना कार्य बताया, तो स्वामी जी ने कहा, "चलो, टहलने चलें और हम तुरंत संसार के कुछ सबसे अधिक रमणीक दृश्यों के बीच चल दिए।
हम चले धूप और छाया के मार्गों से, शांत गाँवों के बीच, खेलते हुए बच्चों में होकर और सुनहरे मक्के के खेतों के पार। यहाँ ऊँचे वृक्ष ऊपर आकाश में छेद करते हुए मालूम होते थे और वहाँ किसान कन्याओं का दल कलगीदार मक्के के पौधों को काटकर जाड़े के भंडारों के लिए ले जाने के वास्ते हाथ में हँसिया लिए झुका हुआ था। अब सड़क एक सेबों के बाग़ में से गुज़रती थी; यहाँ हरे, गुलाबी फलों के बड़े ढेर वृक्षों के नीचे छाँटे जाने के लिए पड़े हुए थे। और फिर हम खुले में आ गए। हमारे सामने हिमाद्रि था, जो आकाश की पृष्ठभूमि पर सफ़ेद बादलों से ऊपर सौंदर्य की महान प्रतिमा की भाँति उठा हुआ था।
अंत में मेरे साथी ने मौन तोड़ा। उन्होंने कहा, "नारी के आर्य और सेमेंटिक आदर्श सदा ही एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत रहे हैं। सेमेंटिक लोगों में नारी की उपस्थिति भक्ति में बाधक मानी गयी है, और वहाँ वह कोई धार्मिक कृत्य नहीं करती, जैसे कि भोजन के लिए एक पक्षी को मारना तक भी: आर्य लोगों के अनुसार पुरुष कोई भी धार्मिक कृत्य अपनी पत्नी के बिना नहीं कर सकता।"
"पर स्वामी जी !" मैंने इतनी व्यापक और अप्रत्याशित स्थापना से चौंककर कहा, "क्या हिंदू धर्म आर्य धर्म नहीं है ?"
स्वामी जी शांत भाव से बोले, "आधुनिक हिंदू धर्म अधिकतर पौराणिक है, अर्थात बद्ध के बाद उत्पन्न हुआ है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि यद्यपि पत्नी गार्हपत्य अग्नि में आहुति प्रदानरूप वैदिक अनुष्ठान के लिए नितांत आवश्यक है; पर वह शालिग्राम-शिला अथवा घर में ठाकुर जी की मूर्ति को नहीं छू सकती, क्योंकि वे पिछले पुराण-काल की उत्पत्ति हैं।"
"और इसलिए आपका विचार है कि हम लोगों में नारी की असमानता पूर्णतया बौद्ध मत के प्रभाव के कारण है ?"
"जहाँ वह है, निश्चय ही ऐसा है," स्वामी जी ने कहा, "पर हमें यूरोपीय आलोचना की अचानक आयी हुई बाढ़ और उसके कारण अपने में उत्पन्न हुई अंतर की भावना के वशीभूत होकर अपनी नारियों की असमानता के विचार को स्वीकार करने में अत्यधिक शीघ्रता नहीं करनी चाहिए। परिस्थितियों ने हमारे लिए अनेक शताब्दियों से नारी की रक्षा की आवश्यकता को अनिवार्य बनाया है। हमारे इस रिवाज का कारण इस तथ्य में है, नारी की हीनता में नहीं।"
"तो स्वामी जी, आप हमारे बीच नारियों की स्थिति से पूर्णतया संतुष्ट हैं ?"
"कदापि नहीं", स्वामी जी ने कहा, "पर हमारा हस्तक्षेप करने का अधिकार केवल शिक्षा का प्रचार कर देने तक ही सीमित है। हमें नारियों को ऐसी स्थिति में पहुँचा देना चाहिए, जहाँ वे अपनी समस्या को अपने ढंग से स्वयं सुलझा सकें। उनके लिए यह काम न कोई कर सकता है और न किसी को करना ही चाहिए। और हमारी भारतीय नारियाँ संसार की अन्य किन्हीं भी नारियों की भाँति इसे करने की क्षमता रखती हैं।"
"वह बुरा प्रभाव, जिसका कारण आप बुद्धमत को बताते हैं, क्यों आया ?"
"वह केवल धर्म के क्षय से आया।" स्वामी जी ने कहा, "प्रत्येक आंदोलन अपने कुछ असाधारण लक्षणों के कारण विजय प्राप्त करता है, और जब वह गिरता है, तो यही गर्व का विषय उसकी दुर्बलता का मुख्य तत्व बन जाता है। भगवान बुद्ध, मनुष्यों में महानतम, अद्भुत संगठनकर्ता थे, और उन्होंने इस साधन से संसार को विजित किया। पर उनका धर्म भिक्षुओं का धर्म था। इसलिए इसका बुरा प्रभाव यह पड़ा कि स्वयं भिक्षुक का वेश ही आदर का पात्र हो गया। उन्होंने पहली बार धर्म-स्थानों पर सामूहिक जीवन का भी आरंभ किया और उससे नारियों को अनिवार्यतः नरों से हीन बना दिया; क्योंकि महाभिक्षुणियाँ कुछ विशिष्ट भिक्षुओं की सलाह के बिना कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकती थीं। इससे उनके तात्कालिक उद्देश्य, धर्म की दृढ़ता, की तो पूर्ति हो गयी; पर आप देखते हैं कि उसके जो दूरगत परिणाम निकले, वही शोचनीय हुए।"
"पर संन्यास को तो वेदों की स्वीकृति प्राप्त है !"
"निश्चय ही है; पर उसमें नर और नारी के बीच कोई भेद नहीं किया गया है। आपको याद होगा कि राजा जनक की सभा में याज्ञवल्क्य से किस प्रकार प्रश्न पूछे गए थे? उनकी मुख्य प्रश्न करनेवाली थी, वाचक्नवी, वाग्मी कन्याब्रह्मावादिनी, जैसा कि उन दिनों कहा जाता था। वह कहती है, "मेरे प्रश्न एक कुशल धनुर्धर के हाथ में दो चमकदार तीरों के समान हैं।" उसके नारी होने की चर्चा भी नहीं की गयी है। और फिर, क्या वनों में स्थित हमारे पुरातन विश्वविद्यालयों में लड़कों और लड़कियों की समानता से अधिक पूर्ण कुछ और हो सकता है। हमारे संस्कृत नाटकों को पढ़िए, शकुंतला की कहानी पढ़िए और देखिए कि क्या टेनीसन की 'प्रिंसेज़' हमें कुछ सिखा सकती है ?"
"स्वामी जी, हमारे अतीत के गौरव को उद्घाटित करने की आपकी रीति अद्भुत है !"
"शायद इसलिए कि मैंने संसार को दोनों तरफ़ से देखा है", स्वामी जी ने नम्रतापूर्वक कहा, "और मैं जानता हूँ कि जिस जाति ने सीता को उत्पन्न किया है-चाहे उसने उसकी कल्पना ही की हो-नारी के प्रति उसका आदर पृथ्वी पर अद्वितीय है। पश्चिमी नारी के कंधों पर क़ानूनी दृढ़ता से बँधे हुए बहुत-से बोझ हैं, जिनका हमारी नारियों को पता भी नहीं है। निश्चय ही हमारे अपने दोष हैं और अपने अपवाद है, पर इसी प्रकार उनके भी हैं। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि संसार भर में सबका प्रयत्न यह रहा है कि प्रेम, दया और ईमानदारी को अभिव्यक्ति दी जाए, और यह भी कि इस अभिव्यक्ति के लिए निकटतम माध्यम राष्ट्रीय रीति-रिवाज़ हैं। जहाँ तक घरेलू गुणों का संबंध है, मुझे यह कहने में तनिक भी झिझक नहीं है कि हमारे भारतीय रीति-रिवाज़ बहुत सी बातों में सभी दूसरों से अच्छे हैं।"
"तो स्वामी जी, क्या हमारी नारियों की कोई समस्या है भी ?"
"निश्चय ही हैं, उनकी समस्याएँ बहुत सी हैं और गंभीर है, पर उनमें एक भी ऐसी नहीं है, जो जादू भरे शब्द 'शिक्षा' से हल न की जा सकती हो। पर वास्तविक शिक्षा की तो अभी हम लोगों में कल्पना भी नहीं की गयी है।"
"और आप उसकी परिभाषा कैसे करेंगे?"
"मैं कभी किसी बात की परिभाषा नहीं करता", स्वामी जी ने मुस्कराते हुए कहा, "फिर भी हम इसे मानसिक शक्तियों का विकास-केवल शब्दों का रटना मात्र नहीं, अथवा व्यक्तियों को ठीक तरह से और दक्षतापूर्वक इच्छा करने का प्रशिक्षण देना कह सकते है। इस प्रकार हम भारत की आवश्यकता के लिए महान निर्भीक नारियाँ तैयार करेंगे-नारियाँ जो संघमित्रा, लीला, अहल्याबाई, और मीराबाई की परंपराओं को चालू रख सकें-नारियाँ जो वीरों की माताएँ होने के योग्य हो, इसलिए कि वे पवित्र और आत्मत्यागी है, और उस शक्ति से शक्तिशाली हैं, जो भगवान के चरण छूने से आती है।"
"तो, स्वामी जी, आप समझते हैं कि शिक्षा में धार्मिक तत्व भी होना चाहिए ?"
"मैं धर्म को शिक्षा का अंतरतम अंग समझता हूँ", स्वामी जी ने गंभीरता से कहा। "ध्यान रखिए कि धर्म के विषय में मैं अपना अथवा किसी दूसरे की राय की बात नहीं कहता। मैं समझता हूँ कि शिक्षक को, जैसा कि दूसरी बातों में किया जाता है, चाहिए कि वह विद्यार्थिनी को उसके आरंभिक बिंदु से ले और उसे इस योग्य बनाए कि वह स्वयं अपने अल्पतम बाधा के मार्ग से विकसित हो सके।"
"पर निश्चय ही ब्रह्मचर्य को धर्म में उच्च आसन देकर, और माँ तथा पत्नी से उच्चतम स्थान लेकर और उसे इन संबंधों से बचनेवाले लोगों को देकर नारी पर सीधा प्रहार किया गया है।"
स्वामी जी ने कहा, "आपको याद रखना चाहिए कि यदि धर्म नारी के लिए ब्रह्माचर्य को ऊँचा स्थान देता है, तो वह बिल्कुल वही बात पुरुष के लिए भी करता है। इसके अतिरिक्त आपके प्रश्न से मालूम होता है कि स्वयं आपके मन में कुछ अस्पष्टता है। हिंदू धर्म मानवात्मा के लिए एक, केवल एक कर्तव्य बताता है। वह नश्वरता के बीच अविनश्वर को पाने की खोज है। कोई भी मनुष्य ऐसा एक मार्ग बताने का साहस नहीं करता, जिसके द्वारा वह प्राप्त किया जा सकता है। विवाह अथवा अ-विवाह, भलाई अथवा बुराई, विद्वत्ता अथवा अज्ञान, इनमें से कोई भी उचित्त है, यदि वह हमें ध्येय की ओर ले जाता है। इस तरह, इस बात में और बुद्धमत में बड़ा अंतर है, क्योंकि बुद्ध मत का प्रमुख निर्देश यह है कि बाह्य के अस्थायित्व का अनुभव प्राप्त किया जाए, साधारणतः जो केवल एक तरह से किया जा सकता है। क्या आपको महाभारत में उस युवक योगी की कहानी याद है, जो अपनी मनोशक्ति पर इसलिए गर्व करता था कि उसने एक कौवे और एक सारस के शरीर को अपनी तीव्र इच्छा के अनुसार क्रोध से उत्पन्न हुई अग्नि से जला दिया था। क्या आपको याद है कि वह युवक योगी नगर में जाता है और पहले एक पत्नी को अपने रोगी पति की सेवा करते हुए पाता है और फिर कसाई धर्म-व्याध को देखता है, जिन दोनों ने सामान्य सच्चाई और कर्तव्य के मार्ग से ज्ञान प्राप्त किया है।"
"तो स्वामी जी, आप इस देश की नारियों को क्या संदेश देंगे?"
स्वामी जी ने कहा, "इस देश की नारियों को ही क्यों, मैं उनसे भी वही बात कहूँगा, जो पुरुषों से कहता हूँ। भारत में विश्वास करो और हमारे भारतीय धर्म में विश्वास करो। शक्तिशाली बनो, आशावान बनो और संकोच छोड़ो; और याद रखो कि यदि हम बाहर से कोई वस्तु लेते हैं, तो संसार की किसी अन्य जाति की तुलना में हिंदू के पास उसके बदले में देने को अनंत गुना अधिक है।"
हिंदू धर्म की सीमा
('प्रबुद्ध भारत', अप्रैल १८९९)
हमारा प्रतिनिधि लिखता है :
संपादक का आदेश था कि मैं हिंदू धर्म ग्रहण करने के प्रश्न पर स्वामी विवेकानंद से भेंट करूँ। इस काम के लिए मुझे एक संध्या को गंगा में बजरे की छत पर अवसर मिला। अँधेरा हो चुका था और हम रामकृष्ण मठ, बेलूड़ के बाँध पर रुक गए थे और स्वामी जी मुझसे बातें करने के लिए नीचे बजरे पर आये।
समय और स्थान, दोनों एक से सुहावने थे। ऊपर तारे थे और चारों ओर-बहती हुई गंगा; और एक ओर खड़ा था अस्पष्ट रूप से आलोकित मठ-भवन, जिसकी पृष्ठभूमि में ताड़ और ऊँचे छायादार वृक्ष थे।
मैंने आरंभ किया, "स्वामी जी, इस प्रश्न पर मैं आपसे समालाप करना चाहता हूँ कि हिंदू धर्म से जो लोग बाहर निकल गए थे, उनको वापस लेने के विषय में आपकी क्या राय है। क्या आपकी राय है कि उनको स्वीकार किया जाना चाहिए ?" का स्वामी जी ने कहा, "निश्चय ही वे लिये जा सकते हैं और लिये जाने चाहिए।"
वे एक क्षण गंभीर, विचारमग्न बैठे रहे और फिर बोले, "इसके अतिरिक्त यह भी है कि यदि हम ऐसा नहीं करेंगे, तो हमारी संख्या घट जाएगी। जब मुसलमान पहले-पहल यहाँ आये, तो कहा जाता है-मैं समझता हूँ, प्राचीनतम मुसलमान इतिहास-लेखक फ़रिश्ता के प्रमाण से-कि हिंदुओं की संख्या साठ करोड़ थी। अब हम लोग बीस करोड़ हैं। और फिर हिंदू धर्म में से जो एक व्यक्ति बाहर जाता है, उससे हमारा एक व्यक्ति केवल कम ही नहीं होता, वरन् एक शत्रु भी बढ़ता है।
"फिर जो हिंदू मुसलमान अथवा ईसाई बने हैं, उनमें से अधिकतर या तो तलवार के भय से बने हैं या जो इस प्रकार बने हैं, उनके वंशज हैं। इन लोगों पर किसी प्रकार की अयोग्यता आरोपित करना स्पष्ट ही अन्याय होगा। क्या कहा, जन्मतः परायों के बारे में ? क्यों, जन्मतः परायों के तो समूहों के समूह अतीत में हिंदू धर्म में लिये गए हैं, और यह उपक्रम आज भी चल रहा है।
"मेरी अपनी राय में, यह कथन न केवल आदिम जातियों, सीमांत के राष्ट्रों और मुसलमानी विजय से पहले के लगभग सभी विजेताओं पर लागू होता है, वरन उन जातियों के लिए भी सत्य है, जिनकी पुराणों में विशेष उत्पत्ति हई है। मैं समझता हूँ कि वे लोग बाहर के थे और इस प्रकार स्वीकृत कर लिए गए।
"निश्चय ही प्रायश्चित्त का अनुष्ठान अपनी इच्छा से धर्म-परिवर्तन करनेवालों के अपने मातृधर्म में लौटने के लिए उपयुक्त है; पर उन लोगों के लिए जो विजय के द्वारा-जैसे कि काश्मीर और नेपाल में-हमसे अलग कर दिए गए हैं अथवा उन नये लोगों के लिए जो हममें सम्मिलित होना चाहते हैं, किसी प्रकार के प्रायश्चित की व्यवस्था नहीं करनी चाहिए।"
"पर ये लोग किस जाति के होंगे, स्वामी जी ?" मैंने पूछने का साहस किया, "उनकी कोई जाति होनी चाहिए, नहीं तो वे हिंदुओं के इस विशाल समाज में कभी भी अंगीकृत नहीं हो सकते। हम उन्हें देने के लिए उचित्त स्थान कहाँ खोजें ?"
स्वामी जी ने शांत भाव से कहा, "लौटनेवाले लोग, निश्चय ही अपनी पहली जाति प्राप्त कर लेंगे। और नये लोग अपनी बना लेंगे।" आगे उन्होंने कहा, "आपको याद होगा कि वैष्णव धर्म में ऐसा पहले किया जा चुका है। विभिन्न जातियों से आये हुए और बाहर के लोग एक झंडे के नीचे मिले और उन्होंने एक अपनी जाति बना ली-और वह भी बहुत आदरणीय। रामानुज से लेकर बंगाल के चैतन्य तक, सभी महान वैष्णव आचार्यों ने यही किया है।"
"और ये नये लोग शादी-विवाह कहाँ करेंगे?" मैंने पूछा।
"आपस में, जैसे कि अब करते हैं।" स्वामी जी ने शांत भाव से कहा।
"और उनके नाम ?" मैंने पूछा, "मैं समझता हूँ कि बाहर से आनेवालों के और उन लोगों के, जो अहिंदू नाम धारण किए हुए हैं, नाम फिर से रखे जाने चाहिए। आप उन्हें जाति के नाम देंगे अथवा और क्या ?"
"निश्चय ही", स्वामी जी ने विचारपूर्वक कहा, "नाम में बहुत कुछ है !" और इस प्रश्न पर वे अधिक नहीं बोले।
पर मेरे दूसरे प्रश्न से वे उद्दीप्त हो उठे; मैंने पूछा, "स्वामी जी, क्या आप इन नव आगंतुकों को बहुमुखी हिंदू धर्म में से अपनी इच्छानुसार कोई धार्मिक विश्वास चुन लेने की स्वतंत्रता देंगे, अथवा आप उनके लिए एक धर्म निश्चित कर देंगे।"
"क्या आप यह पूछ सकते हैं ?" उन्होंने कहा, "वे अपने लिए आप चुनेंगे। क्योंकि जब तक मनुष्य स्वयं अपने लिए नहीं चुनता, हिंदू धर्म की भावना ही नष्ट हो जाती है। हमारे धर्म का सार केवल इष्ट चुनने की इस स्वतंत्रता में है।"
मैं इस कथन को बहुत महत्वपूर्ण समझता हूँ, क्योंकि मैं समझता हूँ, मेरे सामने जो व्यक्ति है, और किसी जीवित व्यक्ति की तुलना में उसने, वैज्ञानिक और सहानुभूतिपूर्ण भावना से हिंदू धर्म के सामान्य आधारों का अध्ययन करने में सबसे अधिक समय लगाया है; और इष्ट की स्वतंत्रता स्पष्ट ही इतना बड़ा सिद्धांत है कि उसमें समस्त संसार को स्थान दिया जा सकता है।
पर अब बात दूसरे विषयों पर चली गयी; और तब प्रेमपूर्वक नमस्कार के बाद इन महान धर्मोपदेशक ने अपनी लालटेन उठायी और मठ में वापस चले गए, जब कि मैं गंगा के पथहीन पथ से उसकी विविध आकारों की नौकाओं के बीच निकलता-पैठता अपने घर, कलकत्ता वापस लौटा।